कुम्भकर्ण
रामचरितमानस को आम बोलचाल में रामायण कहा
जाता है । और ठीक ही कहा जाता है । जनमानस की रामायण तो यही है ।
रामायण प्रकाशपुंज है, और इसका हर चरित्र
प्रकाश है । भगवान् के पक्ष में खड़े चरित्रों के सम्बन्ध में तो यह सच है ही,
विपक्ष में खड़े चरित्रों के सम्बन्ध में भी यह सच है । रामायण में वर्णित खलनायकों
के मात्र मुखौटे ही अन्धकारमय हैं, पीछे वहाँ भी प्रकाश है ।
उदाहरणस्वरूप, हम कुम्भकर्ण का चरित्र देख
सकते हैं । कुम्भकर्ण – रावण का भाई, अप्रतिम योद्धा और राक्षसों के पक्ष में
समर्पित है । अतिभोजी, सुराप्रिय और एक बार में छह मास शयन करने वाला है । तमस का
जीवन्त प्रतीक है । ऐसे कुम्भकर्ण के अन्तर्तम् में भी प्रभुकृपा से प्रकाश है,
जो बार-बार झलकता रहता है ।
राक्षसों की आसन्न पराजय से भयाक्रान्त
रावण कुम्भकर्ण को समयपूर्व जगा देता है, और समस्त स्थितियाँ समझाता है । इस पर
कुम्भकर्ण की प्रतिक्रिया अत्यन्त यथार्थवादी और भगवद्भक्त की-सी है –
दो.- सुनि दसकंधर बचन तब कुंभकरन
बिलखान ।
जगदंबा हरि आनि अब सठ चाहत कल्यान ॥
भल न कीन्ह तैं निसिचर नाहा । अब मोहि आइ जगाएहि काहा ॥
अजहूँ तात त्याग अभिमाना । भजहु राम होइहि कल्याना ॥
हैं दससीस मनुज रघुनायक । जाके हनूमान से पायक ॥
अहह बंधु तैं कीन्हि खोटाई । प्रथमहिं मोहि न सुनाएहि आई ॥
शीघ्र ही यह समझकर कि रावण पर अब किसी
उपदेश का असर नहीं होनेवाला; तथा भाई, राजा, राज्य और राक्षस-जाति के प्रति अपने
कर्तव्यों का स्मरण कर कुम्भकर्ण युद्ध में जाने को सन्नद्ध होता है । लेकिन तब भी
भक्ति का भाव प्रबल है –
अब भरि अंक भेंटु मोहि भाई । लोचन सुफल करौं मैं जाई ॥
स्याम गात सरसीरुह लोचन । देखौं जाइ ताप त्रय मोचन ॥
दो.- राम रूप गुन सुमिरत मगन भयउ
छन एक ।
रावन मागेउ कोटि घट मद अरु महिष अनेक ॥
रामायण में कथन है कि फिर भैंसे खाकर और
मदिरा पीकर वह वज्रघात के समान गरजा । मद से चूर रण के उत्साह में कुम्भकर्ण किला
छोड़कर चला । सेना भी साथ नहीं ली ।
देखि बिभीषनु आगें आयउ । परेउ चरन निज नाम सुनायउ ॥
अनुज उठाइ हृदयँ तेहि लायो । रघुपति भक्त जानि मन भायो ॥
फिर विभीषण द्वारा रावण का दुर्व्यवहार
बताने पर कुम्भकर्ण कहता है –
सुनु सुत भयउ कालबस रावन । सो कि मान अब परम सिखावन ॥
धन्य धन्य तैं धन्य बिभीषन । भयहु तात निसिचर कुल भूषन ॥
बंधु बंस तैं कीन्ह उजागर । भजेहु राम सोभा सुख सागर ॥
स्मरण रहे, यह चेतना कुम्भकर्ण में नशे की
स्थिति में भी है । फिर, अपने कर्तव्य और भवितव्य का स्मरण कर, कुम्भकर्ण विभीषण
को अन्तिम उपदेश देता है और कहता है कि भाई अब तुम जाओ, मुझे अपना-पराया नहीं
सूझता, मैं काल के वश में हो गया हूँ ।
बचन कर्म मन कपट तजि भजेहु राम रनधीर ।
जाहु न निज पर सूझ मोहि भयउँ कालबस बीर ॥
गलत पक्ष से ही सही, कुम्भकर्ण अत्यन्त
वीरतापूर्वक युद्ध करता है, और अन्त में, प्रभु के हाथों से मारा जाता है । उसका
तेज (आत्मा) भगवान् के मुख में समा जाता है ।
तासु तेज प्रभु बदन समाना । सुर मुनि सबहिं अचंभव माना ॥
कुम्भकर्ण भक्त था, इसका इससे बड़ा प्रमाण
क्या हो सकता है ।
जैसी भगवान् ने कुम्भकर्ण पर कृपा की,
वैसी – किसी जन्म में – हम पर भी करें ।
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पद्मनाभ तिवारी