Friday, April 20, 2012


कुम्भकर्ण

रामचरितमानस को आम बोलचाल में रामायण कहा जाता है । और ठीक ही कहा जाता है । जनमानस की रामायण तो यही है ।

रामायण प्रकाशपुंज है, और इसका हर चरित्र प्रकाश है । भगवान्‌ के पक्ष में खड़े चरित्रों के सम्बन्ध में तो यह सच है ही, विपक्ष में खड़े चरित्रों के सम्बन्ध में भी यह सच है । रामायण में वर्णित खलनायकों के मात्र मुखौटे ही अन्धकारमय हैं, पीछे वहाँ भी प्रकाश है ।

उदाहरणस्वरूप, हम कुम्भकर्ण का चरित्र देख सकते हैं । कुम्भकर्ण – रावण का भाई, अप्रतिम योद्धा और राक्षसों के पक्ष में समर्पित है । अतिभोजी, सुराप्रिय और एक बार में छह मास शयन करने वाला है । तमस का जीवन्त प्रतीक है । ऐसे कुम्भकर्ण के अन्तर्तम्‌ में भी प्रभुकृपा से प्रकाश है, जो बार-बार झलकता रहता है ।

राक्षसों की आसन्न पराजय से भयाक्रान्त रावण कुम्भकर्ण को समयपूर्व जगा देता है, और समस्त स्थितियाँ समझाता है । इस पर कुम्भकर्ण की प्रतिक्रिया अत्यन्त यथार्थवादी और भगवद्भक्त की-सी है –

दो.-  सुनि दसकंधर बचन तब कुंभकरन बिलखान ।
जगदंबा हरि आनि अब सठ चाहत कल्यान ॥

भल न कीन्ह तैं निसिचर नाहा । अब मोहि आइ जगाएहि काहा ॥
अजहूँ तात त्याग अभिमाना । भजहु राम होइहि कल्याना ॥
हैं दससीस मनुज रघुनायक । जाके हनूमान से पायक ॥
अहह बंधु तैं कीन्हि खोटाई । प्रथमहिं मोहि न सुनाएहि आई ॥

शीघ्र ही यह समझकर कि रावण पर अब किसी उपदेश का असर नहीं होनेवाला; तथा भाई, राजा, राज्य और राक्षस-जाति के प्रति अपने कर्तव्यों का स्मरण कर कुम्भकर्ण युद्ध में जाने को सन्नद्ध होता है । लेकिन तब भी भक्ति का भाव प्रबल है –

अब भरि अंक भेंटु मोहि भाई । लोचन सुफल करौं मैं जाई ॥
स्याम गात सरसीरुह लोचन । देखौं जाइ ताप त्रय मोचन ॥

दो.- राम रूप गुन सुमिरत मगन भयउ छन एक ।
रावन मागेउ कोटि घट मद अरु महिष अनेक ॥

रामायण में कथन है कि फिर भैंसे खाकर और मदिरा पीकर वह वज्रघात के समान गरजा । मद से चूर रण के उत्साह में कुम्भकर्ण किला छोड़कर चला । सेना भी साथ नहीं ली ।

देखि बिभीषनु आगें आयउ । परेउ चरन निज नाम सुनायउ ॥
अनुज उठाइ हृदयँ तेहि लायो । रघुपति भक्त जानि मन भायो ॥

फिर विभीषण द्वारा रावण का दुर्व्यवहार बताने पर कुम्भकर्ण कहता है –

सुनु सुत भयउ कालबस रावन । सो कि मान अब परम सिखावन ॥
धन्य धन्य तैं धन्य बिभीषन । भयहु तात निसिचर कुल भूषन ॥
बंधु बंस तैं कीन्ह उजागर । भजेहु राम सोभा सुख सागर ॥

स्मरण रहे, यह चेतना कुम्भकर्ण में नशे की स्थिति में भी है । फिर, अपने कर्तव्य और भवितव्य का स्मरण कर, कुम्भकर्ण विभीषण को अन्तिम उपदेश देता है और कहता है कि भाई अब तुम जाओ, मुझे अपना-पराया नहीं सूझता, मैं काल के वश में हो गया हूँ ।

बचन कर्म मन कपट तजि भजेहु राम रनधीर ।
जाहु न निज पर सूझ मोहि भयउँ कालबस बीर ॥

गलत पक्ष से ही सही, कुम्भकर्ण अत्यन्त वीरतापूर्वक युद्ध करता है, और अन्त में, प्रभु के हाथों से मारा जाता है । उसका तेज (आत्मा) भगवान्‌ के मुख में समा जाता है ।

तासु तेज प्रभु बदन समाना । सुर मुनि सबहिं अचंभव माना ॥

कुम्भकर्ण भक्त था, इसका इससे बड़ा प्रमाण क्या हो सकता है ।

जैसी भगवान्‌ ने कुम्भकर्ण पर कृपा की, वैसी – किसी जन्म में – हम पर भी करें ।


-    पद्मनाभ तिवारी

Thursday, April 19, 2012


“साक्षात्कार”, दिसम्बर २००५, पृष्ठ ८९-९० पर प्रकाशित

परास्त कवि का मृत्युकथन


अब
जबकि हार तय है
और यह भी
कि न हो पाया मैं
जूलियस सीज़र
न नेल्सन मंडेला
और न ही स्टीफ़न हॉकिंग

एक गुमनाम-सा सैनिक
जिसने – मैक्सिमस * हो सकने के लिए
मंज़ूर किया
दुखों, दासत्व और अपमान को
उस एक सपने की ख़ातिर
जो पगडंडी को
राजपथ होने की
संभावना और इसीलिए
आकांक्षा देता है

यह हार एकदम असहनीय है
वह जीत
(जो अब अलभ्य है)
इसीलिए और भी काम्य थी
अयोग्यों के घटाटोप नक्कारखाने में
पग-पग पर अनर्ह सिद्ध होते जाना
एक प्रेम
जो शायद खो गया
(सब सुनें – मैं जिसे प्रेम करता था
आजकल घृणा करता हूँ)
मानव होने की मूलभूत स्थितियों से
उच्छेदित,
अपेक्षा यह
कि मुस्कुराहट और कृतज्ञता
मेरे चेहरे पर चस्पा हो
मेरे होठों पर
समाजवादी गीत
और हाथों में
लाल किताब हो
(और मैं अपनी ही लाश ममीकृत करूँ
सर्वहारा के भावी शोधार्थियों के
अध्ययन के लिए)

अब जबकि तय है
कि चींटी की पदचाप
सुनने वाले ने
उपर्युक्त सब अनसुना कर दिया
और कि शायद
कर्मवाद ही सत्य है
यही किया जा सकता है
कि एक छान्दिक शोकान्तिका लिखूँ
और स्वयं को... (उबासी)... शब्दांजलि दूँ



गीत चुप के लिख रहा हूँ
मौन की कविता, कहानी

आख़िरी चिंगारियाँ भी बुझ गईं
हत हुआ मैं, भाग्य विजयी हो गया
अब न जाने किस अँधेरे लोक में
सब कहेंगे एक कवि था, खो गया
क्या कहूँ मैं गीत बल के शौर्य के
जब पराजित हो गई मेरी जवानी

यह नहीं कि शक्ति मेरी क्षीण थी
और न हथियार ही कमज़ोर थे
नहीं यह कोरी शिकायत सच कहूँ
देवता दर्शक नहीं, उस और थे
न्याय की देता रहा था मैं दुहाई
कहाँ सुनती है अदालत मुँहजबानी

विदा मित्रों ! अब सहा जाता नहीं
हार का अपमान का यह दर्द है
स्यात्‌ कोई फिर चुनौती लाएगा
क्षितिज पर उठ रही कैसी ग़र्द है
देखता हूँ, रुक रही है साँस मेरी
ख़ून की भी थम रही है अब रवानी


[* एक रोमन सेनापति जो पहले दास था]

 –       पद्मनाभ तिवारी