Thursday, April 19, 2012


“साक्षात्कार”, दिसम्बर २००५, पृष्ठ ८९-९० पर प्रकाशित

परास्त कवि का मृत्युकथन


अब
जबकि हार तय है
और यह भी
कि न हो पाया मैं
जूलियस सीज़र
न नेल्सन मंडेला
और न ही स्टीफ़न हॉकिंग

एक गुमनाम-सा सैनिक
जिसने – मैक्सिमस * हो सकने के लिए
मंज़ूर किया
दुखों, दासत्व और अपमान को
उस एक सपने की ख़ातिर
जो पगडंडी को
राजपथ होने की
संभावना और इसीलिए
आकांक्षा देता है

यह हार एकदम असहनीय है
वह जीत
(जो अब अलभ्य है)
इसीलिए और भी काम्य थी
अयोग्यों के घटाटोप नक्कारखाने में
पग-पग पर अनर्ह सिद्ध होते जाना
एक प्रेम
जो शायद खो गया
(सब सुनें – मैं जिसे प्रेम करता था
आजकल घृणा करता हूँ)
मानव होने की मूलभूत स्थितियों से
उच्छेदित,
अपेक्षा यह
कि मुस्कुराहट और कृतज्ञता
मेरे चेहरे पर चस्पा हो
मेरे होठों पर
समाजवादी गीत
और हाथों में
लाल किताब हो
(और मैं अपनी ही लाश ममीकृत करूँ
सर्वहारा के भावी शोधार्थियों के
अध्ययन के लिए)

अब जबकि तय है
कि चींटी की पदचाप
सुनने वाले ने
उपर्युक्त सब अनसुना कर दिया
और कि शायद
कर्मवाद ही सत्य है
यही किया जा सकता है
कि एक छान्दिक शोकान्तिका लिखूँ
और स्वयं को... (उबासी)... शब्दांजलि दूँ



गीत चुप के लिख रहा हूँ
मौन की कविता, कहानी

आख़िरी चिंगारियाँ भी बुझ गईं
हत हुआ मैं, भाग्य विजयी हो गया
अब न जाने किस अँधेरे लोक में
सब कहेंगे एक कवि था, खो गया
क्या कहूँ मैं गीत बल के शौर्य के
जब पराजित हो गई मेरी जवानी

यह नहीं कि शक्ति मेरी क्षीण थी
और न हथियार ही कमज़ोर थे
नहीं यह कोरी शिकायत सच कहूँ
देवता दर्शक नहीं, उस और थे
न्याय की देता रहा था मैं दुहाई
कहाँ सुनती है अदालत मुँहजबानी

विदा मित्रों ! अब सहा जाता नहीं
हार का अपमान का यह दर्द है
स्यात्‌ कोई फिर चुनौती लाएगा
क्षितिज पर उठ रही कैसी ग़र्द है
देखता हूँ, रुक रही है साँस मेरी
ख़ून की भी थम रही है अब रवानी


[* एक रोमन सेनापति जो पहले दास था]

 –       पद्मनाभ तिवारी